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कोटद्वार । Kotdwara

कण्वाश्रम

कण्वाश्रम मालिनी नदी के किनारे स्थित है। कोटद्वार से इस स्‍थान की दूरी 14 किलोमीटर है। यहां स्थित कण्व ऋषि आश्रम बहुत ही महत्‍वपूर्ण एवं ऐतिहासिक जगह है। ऐसा माना जाता है कि सागा विश्‍वमित्रा ने यहां पर तपस्‍या की थी। भगवानों के देवता इंद्र उनकी तपस्‍या देखकर अत्‍यंत चिंतित होत गए और उन्‍होंने उनकी तपस्‍या भंग करने के लिए मेनका को भेजा। मेनका विश्‍वामित्र की तपस्‍या को भंग करने में सफल भी रही। इसके बाद मेनका ने कन्‍या के रूप में जन्‍म लिया और पुन: स्‍वर्ग आ गई। बाद में वहीं कन्‍या शकुन्‍तला के नाम से जाने जानी लगी। और उनका विवाह हस्तिनापुर के महाराजा से हो गया। शकुन्‍लता ने कुछ समय बाद एक पुत्र को जन्‍म दिया। जिसका नाम भारत रखा गया। भारत के राजा बनने के बाद ही हमारे देश का नाम भारत' रखा गया।


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सेंट जोसेफ कैथेडरल चर्च
Asia's 2nd largest church.
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बाबा सिद्धबली धाम
गढ़वाल के प्रवेशद्वार कोटद्वार कस्बे से कोटद्वार-पौड़ी राजमार्ग पर लगभग 3 कि०मी० आगे खोह नदी के किनारे बांयी तरफ़ एक लगभग 40 मीटर ऊंचे टीले पर स्थित है गढ़वाल प्रसिद्ध देवस्थल सिद्धबली मन्दिर। यह एक पौराणिक मन्दिर है । कहा जाता है कि यहां तप साधना करने के बाद एक सिद्ध बाबा को हनुमान जी  की सिद्धि प्राप्त हुई थी । 
सिद्ध बाबा ने यहां बजरंगबली की एक विशाल पाषाणी प्रतिमा का निर्माण किया। जिससे इसका नाम सिद्धबली हो गया (सिद्धबाबा द्वारा स्थापित बजरंगबली) । कहा जाता है कि ब्रिटिश शासनकाल में एक खान सुपरिटेंडैण्ट जो कि मुसलमान थे घोड़े से कहीं जा रहे थे, जैसे ही वह सिद्धबली के पास पहुंचे बेहोश हो गये। उनको स्वपन हुआ कि सिद्धबली कि समाधि पर मन्दिर बनाया जाय। जब उन्हें होश आया तो उन्होने यह बात आस-पास के लोगों को बताई और वहां तभी से यह प्राचीन मन्दिर अस्तित्व में आया। प्राचीन समय में यह एक छोटा सा मन्दिर था। किन्तु पौराणिकता और शक्ति की महत्ता के कारण श्रद्धालुओं ने इसे भव्यता प्रदान कर दी है।
यह मन्दिर न केवल हिन्दू-सिक्ख धर्मावलंबियों का है अपितु मुसलमान भी यहां मनौतियां मांगने आते हैं। मनोकामना पूर्ण होने पर श्रद्धालु लोग दक्षिणा तो देते हैं ही यहां भण्डारा भी आयोजित करते हैं । इस स्थान पर कई अन्य ऋषि मुनियों का आगमन भी हुआ है। इन संतो में सीताराम बाबा, ब्रह्मलीन बाल ब्रह्मचारी नारायण बाबा एवं फलाहारी बाबा प्रमुख हैं। यहां साधक को शांति अनुभव होती है।
यह मन्दिर का अदभुत चमत्कार ही है कि खोह नदी में कई बार बाढ़ आई किन्तु मन्दिर ध्वस्त होने से बचा है। यद्यपि नीचे की जमीन खिसक गई है किन्तु मन्दिर आसमान में ही लटका हुआ है। यहां प्रतिवर्ष श्रद्धालुओं के द्वारा मेले का आयोजन होता है। जिसमें सभी धर्मों के लोग भाग लेते हैं।
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दुर्गा देवी मंदिर

कोटद्वार पौड़ी मोटरमार्ग पर कोटद्वार से लगभग 13 किलोमीटर आगे खोह नदी के किनारे समुद्र की सतह से 600 मीटर की ऊंचाई पर मुख्यमार्ग पर स्थित है "दुर्गादेवी मन्दिर"। आधुनिक मन्दिर सड़क के पास स्थित है परन्तु प्रचीन मन्दिर आधुनिक मन्दिर से थोड़ा नीचे एक 12 फीट लम्बी गुफा में स्थित है जिसमें एक शिवलिंग स्थित है। स्थानीय निवासी इस मन्दिर में बड़ी श्रद्धाभक्ति से देवी की पूजा करते हैं। उनका विश्वास है कि मां दुर्गा जीवन में आने वाले हर संकंट से उन्हे बचाती है। चैत्रीय व शारदीय नवरात्र में यहां भक्तों का तांतां लगा रहता है इस दौरान यहां कई श्रद्धालु भण्डारे का आयोजन करते हैं। श्रावणमास के सोमवार और शिवरात्रि को बड़ी संख्यां में शिवभक्त यहां भगवान भोलेनाथ का जलाभिषेक करने आत्ते हैं । इस अवसर पर शिवभक्त देवी के दर्शन करना भी नहीं भूलते हैं।
यहां स्थित गुफा में दीर्घकाल से ही निरंतर धूनी जलती रहती है। कहा जाता है कि अनेकों बार मां दुर्गा का वाहन सिहं मन्दिर में आकर मां दुर्गा के दर्शनकर शान्त भाव से लौट जाता है। यहां रह रहे महात्माओं पर उसने कभी कुदृष्टि तक नहीं डाली। देवी के मन्दिर निर्माण में भी एक रोचक घटना छिपी हुई है। कहा जाता है कि यह मन्दिर पूर्व में बहुत छोटे आकार में हुआ करता था। किन्तु दुगड्डा कोटद्वार के बीच सड़क निर्माण कार्य में व्यवधान आने पर ठेकेदार द्वारा भव्य मन्दिर की स्थापना की गई तो कार्य तीव्र गति से सम्पन्न हुआ। मन्दिर के आसपास हरेभरे जंगल व नीचे नदी के किनारे विशाल चट्टानें इस स्थान की सुन्दरता पर चार चांद लगा देती हैं। वैसे तो आये दिन यहां लोगों की आवजाही रहती है, परन्तु सप्ताहान्त पर लोग यहां नदी किनारे पर्यटन हेतु आते हैं।
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सुखरौंं देवी मंदिर
देवभूमि उत्तराखण्ड के प्रवेशद्वार कोटद्वार में लालढांग मार्ग, देवी रोड़ पर स्थित है माता सुखरौदेवी का मन्दिर। पौराणिक जनश्रुतियों के अनुसार जहां यह सुखरौदेवी मन्दिर स्थित है उस स्थान पर द्वापर युग में महाराजा दुश्यन्त द्वारा सर्वप्रथम मन्दिर कि स्थापना की गई थी । उस समय यह क्षेत्र वनों से आच्छादित था तथा इस स्थान पर वट एवं पीपल के प्रचीन युगल वृक्ष थे जिनके नीचे कण्वाश्रम जाने वाले पथिक विश्राम किया करते थे। इसी कण्वाश्रम को महराज भरत की जन्मस्थली माना जाता है। समय के साथ साथ बस्तियों का निर्माण होता चला गया पेड़ कटते चले गये । इस स्थान पर लोगों ने मन्दिर के अवशेष देखे तो पूजा अर्चना करने लगे। प्राप्त जानकारियों के अनुसार दो छोटे-छोटे आलों में मूर्तियां रखी हुई थी जिनकी लोग पूजा अर्चना किया करते थे।
यह भी जानकारियां प्राप्त हुई हैं कि यहां पहले एक बाबा इन्द्रगिरी एक झोपड़ी बनाकर रहते थे उन्होने एक महिला की सहायता से दो छोटे-छोटे मन्दिर बनवाये थे जो काफ़ी जीर्ण-शीर्ण हो गये थे, इन मन्दिरों में से देवी के मन्दिर का गर्भगृह कटे पत्थरों से बना था बाहरी प्रकोष्ठ ईंटों से निर्मित था। गर्भगृह से प्रतीत होता है कि गर्भगृह हि पहले बना होगा। धीरे धीरे मन्दिर के उत्थान हेतु समिति की स्थापना की गई। स्थानीय नागरिकों द्वारा भी मन्दिर के उत्त्थान में काफी सहयोग दिया गया। इसी योगदान से धर्मशाला तथा पुस्तकालय का निर्माण किया गया। स्थानीय नागरिकों की मन्दिर में अटूट श्रद्धा है। मन्दिर में दुर्गा, पार्वती, राधाकृष्ण, शिव तथा सभी देवी-दवताओं की मनमोहक मूर्तियां तथा चित्र लगे हुये हैं।




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