केदारनाथ में आई प्राकृतिक आपदा के बाद तुरंत किसी को भी समझ नहीं आया कि आखिर इतना बड़ा संकट किस वजह से आ गया। कयास तो बहुत लगाए गए, लेकिन पुख़्ता वजह किसी को पता नहीं थी। मैं घटना के कई हफ्तों बाद तक कई लोगों से इस बारे में बात करते रहा। आपदा के वक्त केदारनाथ में मौजूद रहे चश्मदीदों के अलावा देश के जाने माने इतिहासकार, वैज्ञानिक, भूगर्भशास्त्री और आपदा विशेषज्ञ सबके साथ मैंने बात की। आज हमारे पास कुछ तर्कपूर्ण विश्लेषण हैं, जो ये बताते हैं कि उस दिन कैसे ये सब हो गया, लेकिन बारीकियों में जाएं तो अब भी वैज्ञानिक और भूगर्भशास्त्री किसी एक नतीजे पर नहीं पहुंचे पाए हैं। जो भी विश्लेषण उपलब्ध हैं, उसे समझने के लिए उस दिन केदारनाथ में मची तबाही में क्या-क्या हुआ इसे क्रमवार जानना भी ज़रूरी है। केदारनाथ ही नहीं नदी के बहाव के साथ आगे बढ़ते हुए रामबाड़ा, गौरीकुंड, सोनप्रयाग, चंद्रापुरी, अगस्त्यमुनि और श्रीनगर जैसे इलाकों में भी कुदरत ने जमकर तबाही मचाई। इस पूरे इलाके में बरबादी तो केदारनाथ में आई बाढ़ से पहले ही शुरू हो गई थी। उत्तराखंड में कई जगह बड़े बड़े भूस्खलन हुए, रास्ते कट गए और पुल टूट गए। ये तबाही किसी एक दिन आई बाढ़ से नहीं हुई बल्कि दो तीन दिन तक अलग-अलग जगह पूरे राज्य में तांडव होता रहा। केदारनाथ में हुई बरबादी तकरीबन 24 घंटे की टाइमलाइन पर बिखरी हुई है।
रविवार, 16 जून - केदारनाथ में मौजूद हर शख्स सुबह से ही डरा हुआ था। बरसात पिछले 3 दिन से रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। इस इलाके में कई सालों से रह रहे लोगों ने भी आसमान से इतना पानी एक साथ बरसते कभी नहीं देखा था। लगातार हो रही बरसात का असर अब दिखने लगा था। 16 तारीख की सुबह भैंरोनाथ के मंदिर वाली पहाड़ी टूटने लगी। वहां से भूस्खलन शुरू हो गया और केदारनाथ से भैंरो मंदिर जाने वाला मार्ग बंद हो गया।
केदारनाथ में पिछले कुछ दिनों से एक धरना और हड़ताल चल रही थी। ये हड़ताल यहां कुछ प्राइवेट कंपनियों की ओर से दी जाने वाली हेलीकॉप्टर सेवा के विरोध में थी। ये हेलीकॉप्टर सेवा उन लोगों के लिए थी जो गौरीकुंड से केदारनाथ तक का रास्ता पैदल या घोड़ों और पालकियों की मदद से तय करना नहीं चाहते। घोड़े वालों का कहना था कि हेलीकॉप्टर सेवा चलने से उनका नुकसान हो रहा है। कुछ स्थानीय नेताओं ने इस हड़ताल में पर्यावरण का मुद्दा भी जोड़ दिया और ये शिकायत की कि हेलीकॉप्टरों से घाटी में शोर बढ़ रहा है और इससे यहां के संवेदनशील इलाके में वन्य जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
16 जून को जब पहली बार केदारनाथ में बाढ़ आई तो सबसे पहले ये हेलीपैड ही खत्म हुआ, जिस पर धरना चल रहा था। पूरा का पूरा हेलीपैड धंस गया और नदी उसे मिनटों में बहा ले गई। इस समय केदारनाथ के आसपास के इलाके में सारी नदियां उफान पर थीं। वासुकी ताल से आने वाली दूध गंगा और मधु गंगा अपने सामान्य स्तर से कई फुट ऊपर बह रहीं थीं। यही हाल मंदाकिनी और दूसरी नदियों का भी था। दोपहर होते-होते इन नदियों का पानी केदारनाथ को देश के बाकी हिस्से से जोड़ने वाले दो पुलों के ऊपर से बहने लगा। हालात बद से बदतर होते जा रहे थे।
35 साल का रघुबीर सिंह बिष्ट उस दिन केदारनाथ में ही था। श्रीनगर का रहने वाला ये नौजवान यात्रा सीज़न के वक्त हर साल ज़िला पंचायत की ओर से लीज़ पर दिया गया गेस्ट हाउस चलाता और ये उसके व्यापार का बड़ा हिस्सा था। रघुबीर ने उस दिन तबाही के कुछ वीडियो अपने मोबाइल में रिकॉर्ड किए. (रघुबीर ने 16 और 17 जून के वीडियो यू ट्यूब में पोस्ट किए जिन्हें अमेरिकी ज़ियोलॉजिकल यूनियन समेत कई वेबसाइट्स ने इस्तेमाल किया है.) बाद में रघुबीर ने सोशियल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक पर उस दिन का आंखों देखा हाल भी लिखा। जब मैंने रघुबीर से श्रीनगर में मुलाकात की तो उसने बताया कि केदारनाथ में जो कुछ उसने देखा और झेला उसे याद करने के बाद इस बात का भरोसा ही नहीं होता कि वो ज़िंदा है, लेकिन उस दिन उसने अपने होशोहवाश पर काबू रखा और ना केवल अपनी बल्कि कई दूसरे लोगों की जान बचाई।
उस दिन मूसलाधार बारिश हो रही थी और लोग अपने अपने होटलों और गेस्ट हाउसों के अंदर ही रुके रहे। बाहर निकलना बिल्कुल नामुमकिन था। केदारनाथ में पहली बार ज़बरदस्त बाढ़ 16 तारीख की शाम को आई। शाम को मंदिर में होने वाली आरती से ठीक पहले ये रविवार का दिन था। बाढ़ अपने साथ बहुत सारा कीचड़ और बालू लेकर आई और मंदिर के पास बना हेलीपैड बह गया। ये शाम 6.50 की बात है। ये इतनी ज़बरदस्त बाढ़ थी कि जहां से पानी गुजरा वहां कुछ बचा ही नहीं। मैंने पानी के कम होने पर बस 3 लोगों को और कुछ जानवरों को बाहर निकलते देखा।
बरसात बिल्कुल नहीं रुक रही थी। लोग होटल के कमरों में इकट्टा होते रहे। ये सब कुछ देखने के बाद वो बाहर रहना नहीं चाहते थे। सारी दुकानें बंद हो चुकी थीं। रघुबीर का गेस्ट हाउस भी स्थानीय लोगों और तीर्थयात्रियों से खचाखच भर चुका था। रघुबीर और ये तीर्थयात्री खुशकिस्मत थे कि वो सब मंदिर के बाईं ओर मंदाकिनी नदी के पार (नदी के बहाव के दाईं ओर) मौजूद थे। यहां पानी की मारक क्षमता उतनी नहीं थी, जितनी मंदिर की तरफ, रघुबीर के मुझे बताया -
गेस्टहाउस में सारे कमरे खचाखच भर चुके थे। कहीं कोई जगह बची नहीं थी। जहां तक मुझे याद है हर कमरे में 30 से 35 लोग भरे होंगे। तभी एक बहुत ज़ोर की आवाज़ आई मंदिर की ओर से। हमें कुछ समझ में नहीं आया कि ये हुआ क्या। तब मैंने मंदिर के पास मौजूद अपने एक दोस्त को फोन लगाया और उससे पूछा कि आखिर हुआ क्या है। उसने कहा कि केदारनाथ में नदी के ऊपर बने दो पुल बह गए हैं। यानी हमारा मंदिर के साथ ज़मीनी संपर्क कट गया था। शंकरचार्य की 8वीं शताब्दी में बनी समाधि भी खत्म हो गई। इसके अलावा शंकराचार्य की दो प्रतिमाएं, एक स्फटिक लिंग और एक हनुमान की मूर्ति भी बह चुकी थी। इस सारे ढ़ांचों के अवशेष इक्का दुक्का जगह बचे थे। कई सारे आश्रमों का भी कुछ पता नहीं था।
तो यही थी रविवार शाम 16 जून को हुई वो तबाही, जिसका ज़िक्र मंदिर के पुजारी रवीन्द्र भट्ट ने हमसे तिलवाड़ा में किया था। केदारनाथ मंदिर परिसर मिनटों में पानी से लबालब भर गया था और बीसियों लोग इसमें डूब गए।
अंधेरा हो चुका था। पूरे इलाके में बत्ती गुल हो गई थी। बिजली के लिए लगा पावर हाउस फेल हो गया था। कुछ स्थानीय लोगों ने जेनरेटर ऑन किए, लेकिन बुरी तरह से डरे लोगों में भरोसा पैदा करने के लिए ये रोशनी काफी नहीं थी। बहुत सारे लोग तो डर कर पहले ही जंगल की ओर भाग गए थे और बहुत से और लोग भी यहां से जाना चाहते थे, लेकिन अंधेरे में चलना सभी तीर्थयात्रियों के लिए संभव नहीं था। उनमें से कई कमज़ोर थे, कई बुज़ुर्ग थे और कई लोगों के पास छोटे-छोटे बच्चे थे। ये सारे लोग कैसे जंगल के रास्ते निकलते खासतौर से तब जब उन्हें इस इलाके का अता पता ना हो और पहाड़ टूटकर गिर रहा हो। अब बहुतों ने पूजा पाठ करना और मंत्र पढ़ना शुरू कर दिया, कुछ लोगों ने भगवान शिव की अर्चना की और कुछ ऐसे भी थे जो ये कहकर मन को समझा रहे थे कि अगर मर गए तो ये मौत केदारनाथ के दरवाज़े पर होगी और मोक्ष मिलेगा।
22 साल के आशीष सजवाण से मेरी मुलाकात गुप्तकाशी में हुई। आशीष भी आपदा वाले दिन केदारनाथ में ही था। मैं उससे 22 जून को मिला। तब मैं भी केदारनाथ से लौटकर आया था और वहां बरबादी के मंजर को अपनी आंखों से देखा था। आशीष ने मुझे बताया–
सर जी मैं आपको क्या बताऊं, केदारनाथ में उस दिन सबकुछ अस्तव्यस्त था। वहां हमारा एक होटल और एक दुकान थी। मैं और मेरे होटल स्टाफ के 18 लोग केदारनाथ में थे। मौसम इतना खराब हो गया था कि हर कोई वहां से निकलना चाहता था लेकिन 16 तारीख की शाम को जैसे आसमान ही टूट पड़ा। नदी के ऊपर बने दोनों पुल बह गए। मंदिर के पास पानी क्या आया बस उसने मुसीबत का पिटारा खोल दिया। अपने साथ इतना कीचड़ और बड़े बड़े पत्थर लेकर आया कि कम से कम 50-60 लोग बह गए होंगे। बस वही लोग बच पाए जिन्होंने किसी चीज़ को थाम लिया। पानी हर ओर फैल गया था। बाद में हमने मंदिर से लाउड स्पीकर पर ऐलान सुना, जिसमें लोगों से मंदिर के पास आने के लिए कहा गया, क्योंकि लग रहा था कि केदारनाथ मंदिर को छोड़कर बाकी सब कुछ बह जाएगा।(केदारनाथ में आई आपदा का यह वर्णन हृदयेश जोशी की किताब “तुम चुप क्यों रहे केदार” से लिया गया है)
रविवार, 16 जून - केदारनाथ में मौजूद हर शख्स सुबह से ही डरा हुआ था। बरसात पिछले 3 दिन से रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। इस इलाके में कई सालों से रह रहे लोगों ने भी आसमान से इतना पानी एक साथ बरसते कभी नहीं देखा था। लगातार हो रही बरसात का असर अब दिखने लगा था। 16 तारीख की सुबह भैंरोनाथ के मंदिर वाली पहाड़ी टूटने लगी। वहां से भूस्खलन शुरू हो गया और केदारनाथ से भैंरो मंदिर जाने वाला मार्ग बंद हो गया।
केदारनाथ में पिछले कुछ दिनों से एक धरना और हड़ताल चल रही थी। ये हड़ताल यहां कुछ प्राइवेट कंपनियों की ओर से दी जाने वाली हेलीकॉप्टर सेवा के विरोध में थी। ये हेलीकॉप्टर सेवा उन लोगों के लिए थी जो गौरीकुंड से केदारनाथ तक का रास्ता पैदल या घोड़ों और पालकियों की मदद से तय करना नहीं चाहते। घोड़े वालों का कहना था कि हेलीकॉप्टर सेवा चलने से उनका नुकसान हो रहा है। कुछ स्थानीय नेताओं ने इस हड़ताल में पर्यावरण का मुद्दा भी जोड़ दिया और ये शिकायत की कि हेलीकॉप्टरों से घाटी में शोर बढ़ रहा है और इससे यहां के संवेदनशील इलाके में वन्य जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
16 जून को जब पहली बार केदारनाथ में बाढ़ आई तो सबसे पहले ये हेलीपैड ही खत्म हुआ, जिस पर धरना चल रहा था। पूरा का पूरा हेलीपैड धंस गया और नदी उसे मिनटों में बहा ले गई। इस समय केदारनाथ के आसपास के इलाके में सारी नदियां उफान पर थीं। वासुकी ताल से आने वाली दूध गंगा और मधु गंगा अपने सामान्य स्तर से कई फुट ऊपर बह रहीं थीं। यही हाल मंदाकिनी और दूसरी नदियों का भी था। दोपहर होते-होते इन नदियों का पानी केदारनाथ को देश के बाकी हिस्से से जोड़ने वाले दो पुलों के ऊपर से बहने लगा। हालात बद से बदतर होते जा रहे थे।
35 साल का रघुबीर सिंह बिष्ट उस दिन केदारनाथ में ही था। श्रीनगर का रहने वाला ये नौजवान यात्रा सीज़न के वक्त हर साल ज़िला पंचायत की ओर से लीज़ पर दिया गया गेस्ट हाउस चलाता और ये उसके व्यापार का बड़ा हिस्सा था। रघुबीर ने उस दिन तबाही के कुछ वीडियो अपने मोबाइल में रिकॉर्ड किए. (रघुबीर ने 16 और 17 जून के वीडियो यू ट्यूब में पोस्ट किए जिन्हें अमेरिकी ज़ियोलॉजिकल यूनियन समेत कई वेबसाइट्स ने इस्तेमाल किया है.) बाद में रघुबीर ने सोशियल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक पर उस दिन का आंखों देखा हाल भी लिखा। जब मैंने रघुबीर से श्रीनगर में मुलाकात की तो उसने बताया कि केदारनाथ में जो कुछ उसने देखा और झेला उसे याद करने के बाद इस बात का भरोसा ही नहीं होता कि वो ज़िंदा है, लेकिन उस दिन उसने अपने होशोहवाश पर काबू रखा और ना केवल अपनी बल्कि कई दूसरे लोगों की जान बचाई।
उस दिन मूसलाधार बारिश हो रही थी और लोग अपने अपने होटलों और गेस्ट हाउसों के अंदर ही रुके रहे। बाहर निकलना बिल्कुल नामुमकिन था। केदारनाथ में पहली बार ज़बरदस्त बाढ़ 16 तारीख की शाम को आई। शाम को मंदिर में होने वाली आरती से ठीक पहले ये रविवार का दिन था। बाढ़ अपने साथ बहुत सारा कीचड़ और बालू लेकर आई और मंदिर के पास बना हेलीपैड बह गया। ये शाम 6.50 की बात है। ये इतनी ज़बरदस्त बाढ़ थी कि जहां से पानी गुजरा वहां कुछ बचा ही नहीं। मैंने पानी के कम होने पर बस 3 लोगों को और कुछ जानवरों को बाहर निकलते देखा।
बरसात बिल्कुल नहीं रुक रही थी। लोग होटल के कमरों में इकट्टा होते रहे। ये सब कुछ देखने के बाद वो बाहर रहना नहीं चाहते थे। सारी दुकानें बंद हो चुकी थीं। रघुबीर का गेस्ट हाउस भी स्थानीय लोगों और तीर्थयात्रियों से खचाखच भर चुका था। रघुबीर और ये तीर्थयात्री खुशकिस्मत थे कि वो सब मंदिर के बाईं ओर मंदाकिनी नदी के पार (नदी के बहाव के दाईं ओर) मौजूद थे। यहां पानी की मारक क्षमता उतनी नहीं थी, जितनी मंदिर की तरफ, रघुबीर के मुझे बताया -
गेस्टहाउस में सारे कमरे खचाखच भर चुके थे। कहीं कोई जगह बची नहीं थी। जहां तक मुझे याद है हर कमरे में 30 से 35 लोग भरे होंगे। तभी एक बहुत ज़ोर की आवाज़ आई मंदिर की ओर से। हमें कुछ समझ में नहीं आया कि ये हुआ क्या। तब मैंने मंदिर के पास मौजूद अपने एक दोस्त को फोन लगाया और उससे पूछा कि आखिर हुआ क्या है। उसने कहा कि केदारनाथ में नदी के ऊपर बने दो पुल बह गए हैं। यानी हमारा मंदिर के साथ ज़मीनी संपर्क कट गया था। शंकरचार्य की 8वीं शताब्दी में बनी समाधि भी खत्म हो गई। इसके अलावा शंकराचार्य की दो प्रतिमाएं, एक स्फटिक लिंग और एक हनुमान की मूर्ति भी बह चुकी थी। इस सारे ढ़ांचों के अवशेष इक्का दुक्का जगह बचे थे। कई सारे आश्रमों का भी कुछ पता नहीं था।
तो यही थी रविवार शाम 16 जून को हुई वो तबाही, जिसका ज़िक्र मंदिर के पुजारी रवीन्द्र भट्ट ने हमसे तिलवाड़ा में किया था। केदारनाथ मंदिर परिसर मिनटों में पानी से लबालब भर गया था और बीसियों लोग इसमें डूब गए।
अंधेरा हो चुका था। पूरे इलाके में बत्ती गुल हो गई थी। बिजली के लिए लगा पावर हाउस फेल हो गया था। कुछ स्थानीय लोगों ने जेनरेटर ऑन किए, लेकिन बुरी तरह से डरे लोगों में भरोसा पैदा करने के लिए ये रोशनी काफी नहीं थी। बहुत सारे लोग तो डर कर पहले ही जंगल की ओर भाग गए थे और बहुत से और लोग भी यहां से जाना चाहते थे, लेकिन अंधेरे में चलना सभी तीर्थयात्रियों के लिए संभव नहीं था। उनमें से कई कमज़ोर थे, कई बुज़ुर्ग थे और कई लोगों के पास छोटे-छोटे बच्चे थे। ये सारे लोग कैसे जंगल के रास्ते निकलते खासतौर से तब जब उन्हें इस इलाके का अता पता ना हो और पहाड़ टूटकर गिर रहा हो। अब बहुतों ने पूजा पाठ करना और मंत्र पढ़ना शुरू कर दिया, कुछ लोगों ने भगवान शिव की अर्चना की और कुछ ऐसे भी थे जो ये कहकर मन को समझा रहे थे कि अगर मर गए तो ये मौत केदारनाथ के दरवाज़े पर होगी और मोक्ष मिलेगा।
22 साल के आशीष सजवाण से मेरी मुलाकात गुप्तकाशी में हुई। आशीष भी आपदा वाले दिन केदारनाथ में ही था। मैं उससे 22 जून को मिला। तब मैं भी केदारनाथ से लौटकर आया था और वहां बरबादी के मंजर को अपनी आंखों से देखा था। आशीष ने मुझे बताया–
सर जी मैं आपको क्या बताऊं, केदारनाथ में उस दिन सबकुछ अस्तव्यस्त था। वहां हमारा एक होटल और एक दुकान थी। मैं और मेरे होटल स्टाफ के 18 लोग केदारनाथ में थे। मौसम इतना खराब हो गया था कि हर कोई वहां से निकलना चाहता था लेकिन 16 तारीख की शाम को जैसे आसमान ही टूट पड़ा। नदी के ऊपर बने दोनों पुल बह गए। मंदिर के पास पानी क्या आया बस उसने मुसीबत का पिटारा खोल दिया। अपने साथ इतना कीचड़ और बड़े बड़े पत्थर लेकर आया कि कम से कम 50-60 लोग बह गए होंगे। बस वही लोग बच पाए जिन्होंने किसी चीज़ को थाम लिया। पानी हर ओर फैल गया था। बाद में हमने मंदिर से लाउड स्पीकर पर ऐलान सुना, जिसमें लोगों से मंदिर के पास आने के लिए कहा गया, क्योंकि लग रहा था कि केदारनाथ मंदिर को छोड़कर बाकी सब कुछ बह जाएगा।(केदारनाथ में आई आपदा का यह वर्णन हृदयेश जोशी की किताब “तुम चुप क्यों रहे केदार” से लिया गया है)
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